
Climate कहानी: हिमालय की बर्फ़ खा गई 'ब्लैक कार्बन': दो दशकों में 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ा तापमान, पानी संकट गहराने का ख़तरा
लखनऊ: आज विशेष में प्रस्तुत है, Climate कहानी जिसका शीर्षक है - "हिमालय की बर्फ़ खा गई 'ब्लैक कार्बन': दो दशकों में 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ा तापमान, पानी संकट गहराने का ख़तरा"।
हिमालय की बर्फ़ तेजी से पिघल रही है। क्यों? हमारे चूल्हों से थर्मो, साकीत में जलाई जा रही पराली, और पटाखों से सोडा - यानी 'ब्लैक कार्बन'। एक शोध संस्था दिल्ली क्लाइमेट ट्रेंड्स की नई रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले 20 साल में पूर्वी एशिया में बर्फ की सतह में औसतन 4 डिग्री की बढ़ोतरी हुई है। और ये बदलाव अचानक नहीं आया - इसकी एक बड़ी वजह है हवा में धुआं काला जहर।
ये 'ब्लैक कार्बन' दिखता तो है दिखने में, लेकिन असर करता है किसी शैतान जहर की तरह। ये बर्फ पर भयंकर चमक अर्थात रिफ्लेक्शन शक्ति कम कर देती है, जिससे सूरज की गर्मी सीधी बर्फ में समा जाती है और वो तेजी से पिघलने लगती है।
रिपोर्ट में नासा के 23 साल के सेटलाइट डेटा (2000-2023) का विश्लेषण किया गया है। पता चला कि 2000 से 2019 तक ब्लैक कार्बन की मात्रा में तेजी से इज़ाफा हुआ, जिससे हिमालय की बर्फ लगातार बनी रही। 2019 के बाद इसकी समीक्षा थोड़ी थीमी जरूर है, लेकिन नुक्सान ने भुगतान किया है।
विशेषज्ञ का कहना है कि जहां काले कार्बन का जमाव अधिक होता है, वहां बर्फ की लहरें सबसे तेजी से गिरती हैं। इन नदियों के सुरक्षा उपाय से प्रभावित दो अरब लोगों पर पानी का खतरा मंडरा सकता है - भारत, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश जैसे देशों में।
रिपोर्ट की मुख्य लेखिका, डॉ. पाल बलियान का कहना है, "पूर्वी हिमाचल में ब्लैक कार्बन सबसे ज्यादा पाया गया है, क्योंकि वहां बायोमास से ज्यादा घना बसा है और वहां बायोमास की घटनाएं आम हैं।"
अच्छी बात ये है कि ब्लैक कार्बन ज्यादा समय तक वातावरण में नहीं टिकता। अगर अभी भी इसकी मात्रा कम हो जाए - जैसे कि चूल्हों को साफ जंगल में बदल दिया जाए, परली को हटा दिया जाए, और सेक्टर साफ किया जाए - तो कुछ ही प्राचीन में असर दिख सकता है।
क्लाइमेट ट्रेंड्स के निदेशक आरती खोसला कहते हैं, "ये ऐसी समस्या है जहां हम जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण - दोनों को एक साथ कर सकते हैं। और इसमें जल्दी मिल सकता है।"
विशिष्टता ये है कि हिमालय की बर्फ़ अब अनैतिक नहीं रही। अगर हम चुभते नहीं रहेंगे, तो आने वाले समुद्र में पानी का संकट और तेजी होगी। और इसका प्रभाव केवल पर्वतों तक सीमित नहीं रहेगा — मैदानी जीवन भी इसकी सबसे गहरी अवस्था में रहेगा।
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