Climate कहानी: ज़मीन पर टिके जलवायु वादे: नई रिपोर्ट ने खोला COP30 का सच
लखनऊ: आज "Climate कहानी" की विशेष प्रस्तुति में प्रस्तुत है, "ज़मीन पर टिके जलवायु वादे: नई रिपोर्ट ने खोला COP30 का सच"!
ज़मीन पर टिके जलवायु वादे: नई रिपोर्ट ने खोला COP30 का सच
ज़मीन पर टिके जलवायु वादे: नई रिपोर्ट ने खोला COP30 का सच
बेलेम की हवा में इस हफ़्ते कई वादे तैर रहे हैं।
हर देश अपने “नेट-ज़ीरो” के सपने दोहरा रहा है, मगर एक रिपोर्ट ने इस शोर के बीच वो सच्चाई सुना दी, जिसे सब जानकर भी अनदेखा कर रहे हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेलबर्न की अगुवाई में आई Land Gap Report 2025 कहती है कि दुनिया भर के देश अपनी जलवायु योजनाओं में उत्सर्जन घटाने की बजाय “ज़मीन के सहारे” सब कुछ ठीक करने की उम्मीद लगाए बैठे हैं। यानि, पुराने जंगल बचाने की जगह, नए पेड़ लगाने और बायो-एनर्जी जैसी योजनाओं पर दांव खेला जा रहा है, वो भी ऐसे पैमाने पर जो व्यावहारिक रूप से नामुमकिन है।
रिपोर्ट के मुताबिक़, मौजूदा जलवायु प्लान्स को अगर सच में लागू करना है तो दुनियाभर को 1 अरब हेक्टेयर ज़मीन यानी ऑस्ट्रेलिया से बड़ी ज़मीन चाहिए होगी. मगर इतनी ज़मीन कहाँ से आएगी? इस सवाल का जवाब रिपोर्ट साफ़ देती है, यह ज़मीन सबसे पहले आदिवासियों, छोटे किसानों और स्थानीय समुदायों की रोज़ी पर चोट करेगी.
जंगलों की जगह जमीनी जुगाड़
रिपोर्ट दो बड़ी कमियों की बात करती है: एक “लैंड गैप” और दूसरी “फॉरेस्ट गैप”।
पहली कमी ये कि देश ज़मीन के ज़रिए जितना कार्बन सोखने की योजना बना रहे हैं, वो हक़ीक़त में संभव नहीं है। दूसरी कमी ये कि जो वादे COP28 दुबई में जंगल बचाने के लिए किए गए थे, वे अब योजनाओं से गायब हैं।
अगर मौजूदा pledges ऐसे ही रहे तो 2030 तक हर साल 4 मिलियन हेक्टेयर जंगल खत्म होंगे, और 16 मिलियन हेक्टेयर की ज़मीन बर्बाद होगी, यानि कुल 20 मिलियन हेक्टेयर का “फॉरेस्ट गैप”।
कर्ज़, टैक्स और व्यापार: असली जलवायु जाल
रिपोर्ट ये भी बताती है कि जंगल न बचने की असली वजह सिर्फ़ “फंडिंग की कमी” नहीं है. असल जड़ है वैश्विक आर्थिक व्यवस्था, जो विकास और पर्यावरण को एक-दूसरे के खिलाफ़ खड़ा कर देती है। रिसर्चर केट डूली कहती हैं, “भारी कर्ज़ और उद्योग समर्थक नीतियाँ देशों को मजबूर करती हैं कि वो अपने जंगल बेचकर अर्थव्यवस्था बचाएं. मगर लंबी दौड़ में वही जंगल अर्थव्यवस्था की सेहत बचाते हैं।”
कैमरून इसका जिंदा उदाहरण है। IMF के दबाव में वहाँ लकड़ी, कोको और कपास उत्पादन बढ़ाने की शर्तों ने बीस साल में बड़े पैमाने पर जंगल खत्म कर दिए। रिपोर्ट कहती है कि अगर debt-relief reforms तेज़ी से लाए जाएँ तो देश अपने जंगलों को सांस लेने का मौक़ा दे सकते हैं।
साथ ही रिपोर्ट टैक्स सुधारों की भी बात करती है, कहती है कि ग़ैर-कानूनी वित्तीय प्रवाह और क्रॉस-बॉर्डर टैक्स चोरी विकासशील देशों से अरबों डॉलर निकाल रही है, जो पर्यावरण सुरक्षा पर खर्च हो सकते थे।
ब्राज़ील द्वारा प्रस्तावित wealth tax जैसे उपाय हर साल 200 से 500 अरब डॉलर तक जुटा सकते हैं।
व्यापार नियमों पर भी रिपोर्ट कड़ी है, कहती है कि मौजूदा ट्रेड पॉलिसीज़ सिर्फ़ अवैध लकड़ी रोकने तक सीमित हैं, जबकि असली समस्या तो वही “कानूनी” खेती और खनन है जो जंगल निगल रही है। रिपोर्ट का सुझाव है कि ट्रेड पॉलिसीज़ को कॉमोडिटी ट्रेडर्स से हटाकर छोटे किसानों और सतत खाद्य प्रणालियों की तरफ़ मोड़ना होगा।
संकेत साफ़ हैं: बिना जंगलों के कोई नेट-ज़ीरो नहीं
रिपोर्ट की सह-लेखिका केट हॉर्नर कहती हैं, “अगर हम जलवायु संकट पर सच में प्रगति चाहते हैं, तो पहले उस आर्थिक ढांचे को बदलना होगा जो परिवर्तन को रोक रहा है। मुश्किल ज़रूर है, पर असंभव नहीं।”
उन्होंने चेतावनी दी कि अगर अब भी सुधार नहीं हुए, तो जंगलों की तबाही और जलवायु संकट साथ-साथ तेज़ी से बढ़ेंगे।
क्लाइमेट कहानी का सार
COP30 की चर्चाओं के बीच Land Gap Report 2025 एक आईना है, जो दिखाती है कि जलवायु वादे सिर्फ़ पेड़ लगाने तक सीमित नहीं रह सकते।
कर्ज़ के बोझ तले दबे देशों को विकास और जंगलों के बीच चुनाव नहीं करना चाहिए। असल में, विकास और पर्यावरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, और जब तक दुनिया इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करती, तब तक कोई भी COP हमें उस भविष्य तक नहीं ले जा पाएगी, जहाँ धरती सांस ले सके।
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