
Climate कहानी: 57 कम गर्म दिन: पेरिस समझौते की वो उम्मीद, जो अब भी ज़िंदा है
लखनऊ: आज विशेष में प्रस्तुत है, "Climate कहानी"; जिसका शीर्षक है, "57 कम गर्म दिन: पेरिस समझौते की वो उम्मीद, जो अब भी ज़िंदा है"।
57 कम गर्म दिन: पेरिस समझौते की वो उम्मीद, जो अब भी ज़िंदा है
दुनिया की गर्मी बढ़ चुकी है। मौसम अब सिर्फ़ बदलता नहीं — चेतावनी देता है।
लेकिन इसी बेचैनी के बीच एक नई स्टडी ने उम्मीद की झलक दी है। अगर देश पेरिस समझौते (Paris Agreement) के तहत तय अपने वादों को पूरा करते हैं और इस सदी के अंत तक तापमान वृद्धि को लगभग 2.6°C तक सीमित रखते हैं, तो दुनिया हर साल 57 कम गर्म दिन झेल सकती है।
यह निष्कर्ष है Climate Central और World Weather Attribution की नई रिपोर्ट का — जो बताती है कि यह ऐतिहासिक समझौता अब भी दुनिया को एक सुरक्षित जलवायु की दिशा में मोड़ सकता है, बशर्ते रफ्तार तेज़ हो।
अगर 4°C तक तापमान बढ़ा, तो क्या होगा?
2015 में जब पेरिस समझौता हुआ, तब वैज्ञानिकों का मानना था कि अगर कुछ नहीं किया गया तो सदी के अंत तक दुनिया 4°C तक गर्म हो जाएगी।
ऐसे में पृथ्वी पर औसतन 114 “बहुत गर्म दिन” हर साल आते — वो दिन जब तापमान ऐतिहासिक औसत से 90वें परसेंटाइल से ऊपर चला जाता है।
अब, अगर मौजूदा उत्सर्जन कटौती योजनाएँ लागू होती हैं और तापमान 2.6°C तक सीमित रहता है, तो दुनिया ऐसे 57 दिन कम झेलेगी।
भारत में यह संख्या करीब 30 दिन की है।
यानी, एक महीने तक का फर्क केवल नीति, प्रतिबद्धता और सामूहिक इच्छाशक्ति ला सकती है।
हर अंश की कीमत है
रिपोर्ट कहती है कि “हर दसवां हिस्सा भी मायने रखता है।”
2015 से अब तक सिर्फ़ 0.3°C अतिरिक्त गर्मी आई है, लेकिन इससे दुनिया को हर साल 11 और गर्म दिन मिले हैं। इस छोटे-से बदलाव ने अमेज़न में गर्मी को 10 गुना, माली और बुर्किना फासो में 9 गुना, और भारत-पाकिस्तान में 2 गुना ज़्यादा संभावित बना दिया है।
प्रो. फ्रिडेरिक ओटो, इम्पीरियल कॉलेज लंदन की क्लाइमेट वैज्ञानिक, कहती हैं:
“पेरिस समझौता हमें बचा सकता है, लेकिन सिर्फ़ अगर हम इसे गंभीरता से लें।
हर अंश का फर्क लाखों लोगों के जीवन और मृत्यु के बीच की दूरी तय करता है।”
हीटवेव्स की दुनिया: जहाँ हर साल और मुश्किल बढ़ रही है
स्टडी में छह हालिया हीटवेव्स का विश्लेषण किया गया — यूरोप, पश्चिम अफ्रीका, अमेज़न, एशिया, ऑस्ट्रेलिया और उत्तरी अमेरिका में।
अगर तापमान 4°C तक बढ़ा, तो ऐसी घटनाएँ आज की तुलना में 5 से 75 गुना ज़्यादा होंगी।
यह अंतर सिर्फ़ तापमान का नहीं, जीवन की संभावना का है।
Climate Central की वैज्ञानिक डॉ. क्रिस्टिना डाल कहती हैं, “पेरिस समझौते ने दिशा दिखाई है, लेकिन हम अब भी खतरनाक भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं।
कई देश अभी 1.3°C की गर्मी से ही जूझ रहे हैं, 2.6°C की दुनिया तो कहीं ज़्यादा निर्दयी होगी।”
तैयारी आधी दुनिया में रुकी हुई है
हीट अब दुनिया की सबसे घातक आपदा है — हर साल करीब 5 लाख लोगों की मौत इससे जुड़ी होती है।
इसके बावजूद आधे से ज़्यादा देश अब तक हीट एक्शन प्लान या अर्ली वार्निंग सिस्टम नहीं बना पाए हैं।
जो बने हैं, वे अक्सर कागज़ों में सीमित हैं।
रेड क्रॉस की क्लाइमेट विशेषज्ञ रूप सिंह कहती हैं, “हमने पिछले दशक में गर्मी को लेकर जागरूकता बढ़ाई है, लेकिन सुरक्षा योजनाएँ अब भी आधी दुनिया तक नहीं पहुँची हैं।”
अन्याय की परतें और आने वाला दशक
कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के प्रो. इमैनुएल राजू कहते हैं, “ज़्यादातर गरीब देश अब मुश्किल से ही सामना कर पा रहे हैं। यह जलवायु नहीं, अन्याय का संकट है - जहाँ जिन्होंने सबसे कम नुकसान किया, वही सबसे ज़्यादा झुलस रहे हैं।”
वह कहते हैं कि अब “सर्वाइवल” से आगे बढ़कर “ट्रांसफॉर्मेशन” की ज़रूरत है - मतलब, सिर्फ़ झेलने नहीं, बल्कि व्यवस्था बदलने की।
और इसके लिए ज़रूरी है - अधिक उत्सर्जन कटौती, अधिक फाइनेंस, और क्लाइमेट जस्टिस।
आख़िरी बात: पेरिस समझौता अभी भी काम कर रहा है
रिपोर्ट के सहलेखक बर्नाडेट वुड्स प्लैकी कहती हैं, “पेरिस समझौता काम कर रहा है। जब देश साथ आते हैं, वे फर्क ला सकते हैं।”
दुनिया आज 1.3°C की गर्मी पर खड़ी है। अगर हमने वादे पूरे किए तो शायद हम 57 कम गर्म दिन पा सकेंगे। अगर नहीं, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमारी नाकामी के ताप से झुलसेंगी।
यह समझौता सिर्फ़ तापमान का नहीं — इंसानियत का है। क्योंकि हर अंश, हर डिग्री, किसी न किसी की साँस से जुड़ा है।
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