
ख़तरनाक स्कूल, ख़तरनाक भविष्य: डॉ. सत्यवान 'सौरभ'
टूटी छतें और दीवारों के बीच कैसे चलेगी शिक्षा की नींव?
भारत में लाखों सरकारी विद्यालय खंडहर स्थिति में हैं। टूटी छतें, अंधेरे वाली दुकानें, पानी और शौचालय का अभाव- ये बच्चों की सुरक्षा और पढ़ाई दोनों पर खतरा है।
पिछले नौ वर्षों में 89 हजार सरकारी स्कूल बंद हो गए, जिससे शिक्षा में अमीर-गरीब की खाई और गहराई हो गई।
शिक्षा का अधिकार कानून सुरक्षित भवन की भलाई देता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत अलग है।
सरकार, समाज और सांकेतिक को सामूहिक विद्यालय समूह की पकड़ और खाड़ी में निवेश करना होगा, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ मालबों पर नहीं, मजबूत नींव पर अपने सपने की तलाश कर सकें।
-:डॉ. सत्यवान 'सौरभ':-
भिवानी (हरियाणा): स्तंभकार, कवि, स्वतंत्र पत्रकार एवं आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट- डॉ. सत्यवान 'सौरभ' ने अपनी आज कि विशेष प्रस्तुति में बताया है कि, शिक्षा किसी भी राष्ट्र की आत्मा है और विद्यालय उसका मंदिर है। यह वह स्थान है जहां बच्चों के सपनों को आकार दिया जाता है, विचारों को पंख लगाए जाते हैं और भविष्य की नींव रखी जाती है। परंतु दुख की बात यह है कि भारत में, क्षेत्रीय ग्रामीण इलाकों और आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में, पुजारियों की स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण है। कई झीलों में छतें टूटी हुई हैं, दीवारों में बड़ी-बड़ी दरारें हैं, पेड़ों में पानी टपकता है, खिड़कियाँ टूटी हुई हैं, बेंचों में चट्टानें बनी हुई हैं और पीने के पानी और शौचालय में ऐसी इमारतें भी गायब हैं।
हाल ही में राजस्थान के झालावाड़ जिले में एक सरकारी स्कूल की ही दीवार से सात मासूम बच्चों की मौत हो गई। यह घटना किसी एक स्कूल या राज्य तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिए चेतावनी है। हर बार जब ऐसी दुर्घटना होती है, तो कुछ दिन तक चर्चा होती है, लेकिन फिर सब सामान्य हो जाता है, और समस्या जस की तस बनी रहती है। सवाल यह है कि हमें बच्चों की जान के बाद क्या जगाना होगा?
शिक्षा मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े हैं कि भारत में पचास लाख से अधिक प्राथमिक और एक लाख से अधिक स्कूल माध्यमिक विद्यालय हैं। इनमें से एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाकों में है, जहां बांग्लादेश की देखभाल पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। लाखों की संख्या में आज भी लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं हैं, पीने के पानी की व्यवस्था अधूरी है और कई राज्यों में लगभग एक-तिहाई विद्यालय के खंडहर या अर्ध-जर्जर स्थिति हैं।
शिक्षा का अधिकार कानून दो हजार नौ ने छह चौदह वर्ष के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की सार्थकता दी थी। इस कानून में यह भी स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि प्रत्येक विद्यालय का भवन सुरक्षित, खुला और बच्चों के लिए उपयुक्त होना चाहिए। लेकिन सच तो यह है कि काजी प्रॉजेक्ट पर लागू नहीं हुआ है। फ़ायरवॉल में पढ़ने वाले बच्चों पर हर दिन खतरनाक स्टॉक होता है, और शिक्षा का अधिकार केवल दस्तावेजों में सीमित रहता है।
नौ साल में देश भर के निवासी हजारों से ज्यादा सरकारी स्कूल बंद हो गए। कारण बताया गया है कि इन अंधविश्वासों में नामांकन कम हो गया, लेकिन वास्तविक कारण यह है कि अंधविश्वास की कमी, सीमेंट की कमी और सुविधाओं के अभाव ने बच्चों और सिद्धांतों का विश्वास तोड़ दिया। अभिभावक चाहते हैं कि बच्चे के लिए सुरक्षित वातावरण हो, इसलिए वे वैयक्तिक अवकाश का रुख करते हैं, भले ही उसके लिए उन्हें कर्ज क्यों न लेना पड़े। परिणाम यह है कि अमीर परिवार के बच्चों के लिए बेहतर गुणवत्ता वाले दस्तावेज़ों में अध्ययन किया जाता है, जबकि गरीब और ग्रामीण परिवारों के बच्चों के लिए सरकारी छात्रावास में पढ़ाई की जाती है या फिर बीच में पढ़ाई छोड़ दी जाती है।
इससे शिक्षा में गहरे आश्रम में जन्म हो रहा है। जब एक बच्चा वातानुकूलित कक्ष, आधुनिक शिक्षण सामग्री और पुस्तकालय में मोर्टार है और दूसरा बच्चा बेंच बेंच, सीलनभरी दीवारें और टपकती छत के नीचे के टुकड़े हैं, तो दोनों के लिए समान अवसर संभव कैसे होगा? यह केवल शिक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि आगे चलकर रोजगार, आय और सामाजिक स्थिति पर भी असर डालती है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि पढ़ने वाले बच्चों में तनाव अधिक होता है, स्कूल में नियमित रूप से पढ़ाई नहीं हो पाती है और पढ़ाई की संभावना भी बढ़ जाती है। तूफान के मौसम में समुद्र तट पर पानी भर जाता है, समुद्र तट में बिना हवा के बच्चों के स्वास्थ्य पर असर पड़ता है।
हमारे देश में शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग दो दशमलव नौ प्रतिशत ही खर्च होता है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कम से कम छह प्रतिशत की लागत आती है। जो राशि तय होती है, उसके लिए दिवालियापन का सामान बहुत कम होता है। इसके अलावा, जो रइस विचार भी रखता है, वह अक्सर ज़ामाती की मध्यम प्रक्रिया, किसानों में कारीगरों और पर्यवेक्षकों की कमी के कारण पूरी तरह से खर्च नहीं होता है।
यदि स्थिति सुधारनी है तो सबसे पहले स्कूल की जांच और सुरक्षा के लिए विशेष कोष बनाया जाए, जिसमें राज्य और केंद्र दोनों मिलकर धन जुटाएं। इस कोष का उपयोग विस्तार से हो और प्रत्येक खर्च का खाता सार्वजनिक हो जाए। हर सरकारी स्कूल का वार्षिक सुरक्षा परीक्षण अनिवार्य हो, जिसमें भवन, फर्नीचर, बिजली और पानी की व्यवस्था, शौचालय और खेल के मैदान जैसी सुविधाओं का आकलन किया जाए। पंचायत, अभिभावक और स्थानीय धार्मिक संस्थाएँ पर्यवेक्षकों में शामिल हों, ताकि धन के आधार पर रोक लग सके।
प्रत्येक खंड स्तर पर ऐसे अवकाश लीज दल बनाए रखा जाता है, जो वर्षा, भूकंप, तूफान या किसी अन्य आपदा के बाद तत्काल लीज लीज दल बनाए रखा जाता है। एकत्रीकरण और निर्माण के काम में स्थानीय मजदूरों और कलाकारों को प्राथमिकता दी जाए, ताकि गांव में ही रोज़गार भी पैदा हो और काम की गुणवत्ता पर भी निगरानी बनी रहे।
लेकिन केवल भवन निर्माण की समस्या हल नहीं होगी। असोसिएटम के सानिध्य, पुस्तकालय, खिलौने, खेल का सामान और आधुनिक शिक्षण का सामान भी समान रूप से पाया जाता है। स्कूल का वातावरण तभी प्रेरणा देगा, जब बच्चा वहां सुरक्षित महसूस करे और उन्हें सीखने के लिए सभी साधन उपलब्ध हों।
विद्यालय भवन में केवल एकत्रित-पत्थर का ढाँचा नहीं होता, वे बच्चों के सपने और भविष्य की रक्षा करने वाले किले होते हैं। जब यह किला ही ढह गया और बर्बाद हो गया, तो शिक्षा की शिक्षा कैसे मजबूत होगी? समय आ गया है कि सरकार, समाज और सभी नागरिक समूह इन तीर्थयात्राओं में शामिल हो गए। शिक्षा में निवेश केवल खर्च नहीं है, बल्कि सबसे अधिक निवेश है, क्योंकि एक सुरक्षित और शिक्षित बच्चा ही एक जिम्मेदार नागरिक बनता है।
अगर हम आज इन चट्टानों की दीवारों और छतों को नहीं संभालेंगे, तो कल हमारी आने वाली पीढि़यों के बीच अपने सपने की चट्टानें देखें। यह केवल विद्यालय महाविद्यालय को संभालने का सवाल नहीं है, यह भारत के भविष्य को संभालने का सवाल है।
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